आज बृहस्पतिवार के दिन आप बृहस्पति देव की बड़ी ही दुर्लभ कथा सुनेंगे इस कथा को सुनने से भक्तों की सभी मनोकामनाएं भगवान बृहस्पति देव की कृपा से पूर्ण हो जाती हैं तो आइए बड़ी ही श्रद्धा और प्रसन्न चित मन से इस कथा को सुनते हैं.
भारतवर्ष में एक प्रतापी और दानी राजा राज करता था.
वह गरीबों और ब्राह्मणों की सहायता करता था यह बात उसकी रानी को अच्छी नहीं लगती थी.
वह ना ही गरीबों को दान देती ना ही भगवान का पूजन करती थी और राजा को भी दान देने से मना किया करती थी.
एक दिन राजा शिकार खेलने वन को गए हुए थे तो रानी महल में अकेली थी उसी समय बृहस्पति देव साधु वेश में राजा के महल में भिक्षा लेने के लिए गए और भिक्षा मांगी.
तो रानी ने भिक्षा देने से इंकार कर दिया और कहा – हे साधु महाराज, मैं तो दान पुण्य से तंग आ गई हूं. मेरा पति सारा धन लुटाते रहते हैं मेरी इच्छा है कि हमारा धन नष्ट हो जाए. फिर ना रहेगा बांस ना बजेगी बांसुरी.
साधु ने कहा- देवी तुम तो बड़ी विचित्र हो. धन, संतान तो सभी चाहते हैं पुत्र और लक्ष्मी तो पापी के घर भी होने चाहिए. यदि तुम्हारे पास अधिक धन है तो भूखों को भोजन दो, प्यास के लिए प्याऊ बनवाओ, मुसाफिरों के लिए धर्मशालाएं खुलवा हो जो निर्धन अपनी कुंवारी कन्याओं का विवाह नहीं कर सकते उनका विवाह करा दो. ऐसे और कई काम है जिनके करने से तुम्हारा यश, लोक और परलोक में फैले.
परंतु रानी पर उपदेश का कोई प्रभाव नहीं पड़ा.
वह बोली- महाराज आप मुझे कुछ ना समझाएं मैं ऐसा धन नहीं चाहती जो हर जगह बांटती फिरू.
साधु ने उत्तर दिया यदि तुम्हारी ऐसी ही इच्छा है तो- तथास्तु. तुम ऐसा करना कि बृहस्पतिवार को घर गोबर से लीपना, पीली मिट्टी से अपना सिर धोकर स्नान करना, बृहस्पतिवार के दिन राजा से हजामत बनाने को कहना, भट्टी चढ़ाकर कपड़े धोना ऐसा करने से आपका सारा धन नष्ट हो जाएगा.
इतना कहकर वह साधु महाराज वहां से आलोक हो गए और साधु के अनुसार कहीं बातों को पूरा करते हुए रानी को केवल तीन बृहस्पति वार ही बीते थे कि उसकी समस्त धन संपत्ति नष्ट हो गई.
भोजन के लिए राजा का परिवार तरसने लगा. तब एक दिन राजा ने रानी से बोला कि- हे रानी तुम यहीं रहो मैं दूसरे देश को जाता हूं क्योंकि यहां पर सभी लोग मुझे जानते हैं इसलिए मैं कोई छोटा कार्य नहीं कर सकता.
ऐसा कहकर राजा परदेश चला गया.
वहां वह जंगल से लकड़ी काट कर लाता और शहर में बेचता था इस तरह वह अपना जीवन व्यतीत करने लगा.
इधर राजा के परदेश जाते ही रानी और दासी दुखी रहने लगी एक बार जब रानी और दासी को सात दिन तक बिना भोजन के रहना पड़ा तो रानी ने अपनी दासी से कहा- हे दासी पास ही के नगर में मेरी बहन रहती है वह बड़ी धनवान है तू उसके पास जा और कुछ लेकर आ ताकि थोड़ा बहुत गुजार बसर हो सके.
रानी दासी की बहन के पास गई उस दिन गुरुवार था और रानी की बहन उस समय बृहस्पतिवार व्रत की कथा सुन रही थी.
दासी ने रानी की बहन को अपनी रानी का संदेश दिया लेकिन, रानी की बड़ी बहन ने कोई उत्तर नहीं दिया जब दासी को रानी की बहन से कोई उत्तर नहीं मिला तो वह बहुत दुखी हुई और उसे क्रोध भी आया दासी ने वापस आकर रानी को सारी बात बता दी सुनकर रानी ने अपने भाग्य को कोसा.
उधर रानी की बहन ने सोचा कि मेरी बहन की दासी आई थी परंतु मैं उससे नहीं बोली. इससे वह बहुत दुखी हुई होगी कथा सुनकर और पूजन समाप्त करके वह अपनी बहन के घर आई और कहने लगी- हे बहन, मैं बृहस्पतिवार का व्रत कर रही थी तुम्हारी दासी मेरे घर आई थी परंतु जब तक कथा होती है, तब तक ना तो उठते हैं और ना ही बोलते हैं इसलिए मैं नहीं बोली. कहो, दासी क्यों गई थी?
रानी बोली बहन तुमसे क्या छुपाऊं हमारे घर में खाने तक को अनाज नहीं हैं…. ऐसा कहते कहते रानी की आंखें भराई. उसने दासी समेत पिछले सात दिनों से भूखे रहने तक की बात अपनी बहन को विस्तार पूर्वक सुना दी.
रानी की बहन बोली- देखो बहन भगवान बृहस्पति सबकी मनोकामना को पूर्ण करते हैं. देखो शायद तुम्हारे घर में अनाज रखा हो.
पहले तो रानी को विश्वास नहीं हुआ पर बहन के आग्रह करने पर उसने अपनी दासी को अंदर भेजा तो उसे सचमुच अनाज से भरा एक घड़ा मिल गया.
यह देखकर दासी को बड़ी हैरानी हुई दासी रानी से कहने लगी- हे रानी, जब हमको भोजन नहीं मिलता तो हम एक तरह से व्रत ही तो करते हैं इसलिए क्यों ना इनसे व्रत और कथा की विधि पूछ ली जाए. ताकि हम भी व्रत कर सके.
तब रानी ने अपनी बहन से बृहस्पतिवार व्रत के बारे में पूछा. उसकी बहन ने बताया- बृहस्पतिवार के व्रत में चने की दाल और मुनक्का से विष्णु भगवान का केले की जड़ में पूजन करें तथा दीपक जलाएं, व्रत कथा सुने और पीला भोजन ही करें इससे बृहस्पति देव प्रसन्न होते हैं.
व्रत और पूजन विधि बताकर रानी की बहन अपने घर को लौट गई. सात दिन के बाद जब गुरुवार आया तो रानी और दासी ने व्रत रखा. घुड़साल में जाकर चना और गुड़ लेकर आई फिर उससे केले की जड़ तथा विष्णु भगवान का पूजन किया.
अब पीला भोजन कहां से आए इस बात को लेकर दोनों बहुत दुखी थी क्योंकि उन्होंने व्रत रखा था इसलिए बृहस्पति देव उनसे प्रसन्न थे. इसलिए वे एक साधारण व्यक्ति का रूप धारण करके दो थाली पीला भोजन दासी को दे गए.
भोजन पाकर दासी बहुत प्रसन्न हुई और फिर रानी के साथ मिलकर भोजन ग्रहण किया उसके बाद वे सभी गुरुवार को व्रत और पूजन करने लगी बृहस्पति भगवान की कृपा से उनके पास फिर से धन संपत्ति आ गई.
परंतु रानी फिर से पहले की तरह आलस्य करने लगी तब दासी बोली- देखो रानी तुम पहले भी इस प्रकार आलस्य करती थी तुम्हें धन रखने में कष्ट होता था इस कारण सभी धन नष्ट हो गया और अब जब भगवान बृहस्पति की कृपा से धन मिला है तो तुम्हें फिर से आलस्य होता है.
रानी को समझाते हुए दासी कहती हैं कि बड़ी मुसीबतों के बाद हमने यह धन पाया है इसलिए हमें दान पुण्य करना चाहिए, भूखे मनुष्यों को भोजन कराना चाहिए और धन को शुभ कार्यों में खर्च करना चाहिए जिससे तुम्हारे कुल का यश बढ़ेगा. स्वर्ग की प्राप्ति होगी और पितृ प्रसन्न होंगे.
दासी की बात मानकर रानी अपना धन शुभ कार्यों में खर्च कर करने लगी जिससे पूरे नगर में उसका यश फैलने लगा उधर एक दिन राजा दुखी होकर जंगल में एक पेड़ के नीचे आसन जमाकर बैठ गया. वह अपनी दशा को याद करके व्याकुल होने लगा
बृहस्पतिवार का दिन था एकाएक उसने देखा कि निर्जन वन में एक साधु प्रकट हुए वह साधु वेश में स्वयं बृहस्पति देवता थे.
लकड़हारे के सामने आकर बोले- हे लकड़हारे इस सुनसान जंगल में तू इतना चिंता मग्न में क्यों बैठा है लकड़हारे ने दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया और उत्तर दिया- महात्मा जी आप सब कुछ जानते हैं. मैं क्या कहूं यह कहकर रोने लगा और साधु को अपनी आत्मकथा सुनाई.
महात्मा जी ने कहा- तुम्हारी स्त्री ने बृहस्पति वार के दिन बृहस्पति भगवान का निरादर किया है जिसके कारण रुष्ट होकर उन्होंने तुम्हारी यह दशा कर दी अब तुम चिंता को दूर करके मेरे कहने पर चलो तो तुम्हारे सब कष्ट दूर हो जाएंगे और भगवान पहले से भी अधिक संपत्ति देंगे.
तुम बृहस्पति के दिन कथा किया करो दो पैसे के चने, मुनक्का लाकर उसका प्रसाद बनाओ और शुद्ध जल से लोटे में शक्कर मिलाकर अमृत तैयार करो कथा के पश्चात अपने सारे परिवार और सुनने वाले प्रेमियों में अमृत व प्रसाद को बांटकर खुद भी ग्रहण करो ऐसा करने से भगवान तुम्हारी सब मनोकामनाएं पूरी करेंगे.
साधु के ऐसे वचन सुनकर लकड़हारा बोला- हे प्रभु मुझे लकड़ी बेचकर इतना पैसा नहीं मिलता जिससे भोजन के उपरांत कुछ बचा सकूं. मैंने रात्रि में अपनी स्त्री को व्याकुल देखा है मेरे पास कुछ भी नहीं जिससे मैं उसकी खबर मंगा सकूं.
साधु ने कहा हे लकड़हारे तुम किसी बात की चिंता मत करो बृहस्पतिवार के दिन तुम रोजाना की तरह लकड़ियां लेकर शहर को जाओ. तुमको रोज से दुगुना धन प्राप्त होगा जिससे तुम भली भाति भोजन कर लोगे और बृहस्पति देव की पूजा का सामान भी आ जाएगा.
इतना कहकर साधु अंतर ध्यान हो गए. धीरे-धीरे समय व्यतीत होने पर फिर वही बृहस्पतिवार का दिन आया. लकड़हारा जंगल से लकड़ी काटकर शहर में बेचने गया उसे उस दिन और दिन से अधिक पैसा मिला.
राजा ने चना, गुड़ आदि लाकर गुरुवार का व्रत किया उस दिन से उसके सभी क्लेश दूर हो गए परंतु जब दोबारा गुरुवार का दिन आया तो बृहस्पतिवार का व्रत करना भूल गया इस कारण बृहस्पति भगवान नाराज हो गए.
उस दिन उस नगर के राजा ने विशाल यज्ञ का आयोजन किया था तथा शहर में यह घोषणा करा दी कि कोई भी मनुष्य अपने घर में भोजन ना बनवाए ना आग जलाए समस्त जनता मेरे यहां भोजन करने आए इस आज्ञा को जो ना मानेगा उसे फांसी की सजा दी जाएगी इस तरह की घोषणा संपूर्ण नगर में करवा दी गई राजा की आज्ञा के अनुसार शहर के सभी लोग भोजन करने गए लेकिन लकड़हारा कुछ देर से पहुंचा इसलिए राजा उसको अपने साथ घर लेकर गए और ले जाकर भोजन करा रहे थे.
तो रानी की दृष्टि उस खूंटी पर पड़ी जिस पर उसका हार लटका हुआ था वह वहां पर दिखाई नहीं दिया रानी ने निश्चय किया कि मेरा हार इस मनुष्य ने चुरा लिया है उसी समय सिपाहियों को बुलाकर उसको कारागार में डलवा दिया जब लकड़हारा कारागार में पड़ गया और बहुत दुखी होकर विचार करने लगा कि ना जाने कौन से पूर्व जन्म के कर्म से मुझे यह दुख प्राप्त हुआ है और उसी साधु को याद करने लगा जो कि जंगल में मिला था.
उसी समय तत्काल बृहस्पति देव साधु के रूप में प्रकट हुए और उसकी दशा को देखकर कहने लगे- अरे मूर्ख, तूने बृहस्पति देव की कथा नहीं करी इस कारण तुझे दुख प्राप्त हुआ है. अब चिंता मत कर बृहस्पतिवार के दिन कारागार के दरवाजे पर चार पैसे पड़े मिलेंगे उनसे तू बृहस्पति देव की पूजा करना. तेरे सभी कष्ट दूर हो जाएंगे.
बृहस्पतिवार के दिन उसे चार पैसे मिले लकड़हारे ने कथा कही उसी रात्रि को बृहस्पति देव ने उस नगर के राजा को स्वप्न में कहा हे राजा तुमने जिस आदमी को कारागार में बंद कर दिया है वह निर्दोष है वह राजा है उसे छोड़ देना.
रानी का हार उसी खूंटी पर लटता है अगर तू ऐसा नहीं करेगा तो मैं तेरे राज्य को नष्ट कर दूंगा इस तरह रात्रि के स्वप्न को देखकर राजा प्रातः काल उठा और खोटी पर हार देखकर लकड़हारे को बुलाकर क्षमा मांगी और लकड़हारे को योग्य सुंदर वस्त्र आभूषण देकर विदा कर दिया.
बृहस्पति देव की आज्ञा के अनुसार लकड़हारा अपने नगर को चल दिया राजा जब अपने नगर के निकट पहुंचा तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ नगर में पहले से अधिक बाग, तालाब, कुएं तथा बहुत सी धर्मशाला मंदिर आदि बन गई हैं.
राजा ने पूछा यह किसका बाग और धर्मशाला है. तब नगर के सब लोग कहने लगे यह सब रानी के हैं तो राजा को आश्चर्य हुआ और गुस्सा भी आया.
जब रानी ने यह खबर सुनी कि राजा आ रहे हैं तो उन्होंने दासी से कहा- हे दासी देख राजा हमको कितनी बुरी हालत में छोड़ गए थे हमारी ऐसी हालत देखकर वह लौट ना जाए इसलिए तू दरवाजे पर खड़ी हो जा.
आज्ञा के अनुसार दासी दरवाजे पर खड़ी हो गई राजा आए तो उन्हें अपने साथ लेकर आई.
तब राजा ने क्रोध करके अपनी रानी से पूछा कि धन तुम्हें कैसे प्राप्त हुआ है?
तब उन्होंने कहा हमें यह सब धन बृहस्पति देव के व्रत के प्रभाव से प्राप्त हुआ है राजा ने निश्चय किया कि सात रोज बाद तो सभी बृहस्पति देव का पूजन करते हैं परंतु मैं प्रतिदिन दिन में तीन बार कहानी और रोज व्रत किया करूंगा.
अब हर समय राजा के दुपट्टे में चने की दाल बंदी रहती और दिन में तीन बार कहानी कहते. एक रोज राजा ने विचार किया कि चलो अपनी बहन के यहां हो आवे.
इस तरह निश्चय करके राजा घोड़े पर सवार होकर अपनी बहन के यहां को चलने लगे, मार्ग में उसने देखा कि कुछ आदमी मुर्दे को लिए जा रहे हैं उन्हें रोक कर राजा कहने लगा. अरे भाइयों, मेरी बृहस्पति देव की कथा सुन लो, वे बोले लो हमारा तो आदमी मर गया है इसको अपनी कथा की पड़ी है.
परंतु कुछ आदमी बोले अच्छा कहो हम तुम्हारी कथा भी सुनेंगे. राजा ने दाल निकाली और जब कथा आधी ही हुई थी कि मुर्दा हिलने लग गया और जब कथा समाप्त हो गई तो राम राम करके मनुष्य उठकर खड़ा हो गया.
आगे मार्ग में उसे किसान खेत में हल चलाता मिला तो राजा ने उसे देखकर बोला अरे भैया तुम मेरी बृहस्पतिवार की कथा सुन लो किसान बोला जब तक मैं तेरी कथा सुनूंगा तब तक चार हरैया जोत लूंगा जा अपनी कथा किसी और को सुनाना.
इस तरह राजा आगे चलने लगा राजा के हटते ही बैल पछाड़ खाकर गिर गए और किसान के पेट में बड़ी जोर का दर्द हो ने लगा. उस समय उसकी मां रोटी लेकर आई और उसने जब यह देखा तो. अपने पुत्र से पूछा यह सब कैसे हुआ तो बेटे ने सब कुछ बता दिया.
तो बुढ़िया दौड़ी दौड़ी उस घुड़सवार के पास गई और उससे बोली कि मैं तेरी कथा सुनूंगी तू अपनी कथा मेरे खेत पर चलकर ही कहना राजा ने बुढ़िया के खेत पर जाकर कथा कही जिसके सुनते ही वह बैल उठकर खड़े हुए तथा किसान के पेट का दर्द भी बंद हो गया.
राजा अपनी बहन के घर पहुंचा. बहन ने भाई की खूब मेहमान नवाजी की.
दूसरे रोज प्रातः काल राजा जगा तो वह देखने लगा कि सब लोग भोजन कर रहे हैं. राजा ने अपनी बहन से कहा- ऐसा कोई मनुष्य है जिसने भोजन नहीं किया हो मेरे बृहस्पतिवार की कथा सुन ले.
बहन बोली हे भैया यह देश ऐसा है कि पहले यहां लोग भोजन करते हैं बाद में अन्य काम करते हैं अगर कोई पड़ोस में हो तो देख आऊं.
वह ऐसा कहकर देखने चली गई परंतु उसे कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिला जिसने भोजन ना किया हो अतः वह एक कुम्हार के घर गई जिसका लड़का बीमार था उसे मालूम हुआ कि उनके यहां तीन रोज से किसी ने भोजन नहीं किया है रानी ने अपने भाई की कथा सुनने के लिए कुम्हार से कहा वह तैयार हो गया.
राजा ने जाकर बृहस्पतिवार की कथा कही जिसको सुनकर उसका लड़का ठीक हो गया अब तो राजा की प्रशंसा होने लगी एक रोज राजा ने अपनी बहन से कहा कि- हे बहन, हम अपने घर जाएंगे तुम भी तैयार हो जाओ.
राजा की बहन ने अपनी सास से कहा तो सास ने कहा- हां चली जा परंतु अपने लड़कों को मत ले जाना क्योंकि तेरे भाई की कोई औलाद नहीं है.
बहन ने अपने भैया से कहा- हे भैया मैं तो चलूंगी पर कोई बालक नहीं चलेगा.
तो राजा बोला जब कोई बालक नहीं चलेगा तब तुम ही क्या करोगी बड़े दुखी मन से राजा अपने नगर को लौट आया.
राजा ने अपनी रानी से कहा हम निर्वंश हैं हमारा मुंह धर्म देखने का नहीं है.
रानी बोली- हे प्रभु बृहस्पति देव ने हमें सब कुछ दिया है वह हमें औलाद अवश्य देंगे.
उसी रात को बृहस्पति देव ने राजा से स्वप्न में कहा हे राजा उठो सभी सोच त्याग दो तेरी रानी गर्भ से है.
राजा को यह बात सुनकर बड़ी खुशी हुई नव महीने में उसके गर्भ से एक सुंदर पुत्र पैदा हुआ.
तब राजा बोला हे रानी स्त्री बिना भोजन के रह सकती है पर बिना कहे नहीं रह सकती जब मेरी बहन आएगी तुम उससे कुछ मत कहना. रानी ने सुनकर हां कर दिया जब राजा की बहन ने यह शुभ समाचार सुना तो वह बहुत खुश हुई और बधाई लेकर अपने भाई के यहां आई.
तभी रानी ने कहा- घोड़ा चढ़कर तो नहीं आई है, गधा चढ़कर आई है? राजा की बहन बोली भाभी मैं इस प्रकार ना कहती तो तुम्हें औलाद कैसे मिलती बृहस्पति देव ऐसे ही हैं जैसी जिसके मन में कामनाएं हैं सभी को पूर्ण करते हैं जो सद्भावना पूर्वक बृहस्पतिवार का व्रत करता है एवं कथा पढ़ता है अथवा सुनता है दूसरों को सुनाता है बृहस्पति देव उनकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं.
प्रेम से बोलिए बृहस्पति देव की जय.
विष्णु चालीसा का पाठ
दोहा:
विष्णु सुनिए विनय सेवक की चितलाय।
कीरत कुछ वर्णन करूं दीजै ज्ञान बताय॥
चौपाई:
नमो विष्णु भगवान खरारी।
कष्ट नशावन अखिल बिहारी॥
प्रबल जगत में शक्ति तुम्हारी।
त्रिभुवन फैल रही उजियारी॥
सुन्दर रूप मनोहर सूरत।
सरल स्वभाव मोहनी मूरत॥
तन पर पीताम्बर अति सोहत।
बैजन्ती माला मन मोहत॥
शंख चक्र कर गदा विराजे।
देखत दैत्य असुर दल भाजे॥
सत्य धर्म मद लोभ न गाजे।
काम क्रोध मद लोभ न छाजे॥
सन्तभक्त सज्जन मनरंजन।
दनुज असुर दुष्टन दल गंजन॥
सुख उपजाय कष्ट सब भंजन।
दोष मिटाय करत जन सज्जन॥
पाप काट भव सिन्धु उतारण।
कष्ट नाशकर भक्त उबारण॥
करत अनेक रूप प्रभु धारण।
केवल आप भक्ति के कारण॥
धरणि धेनु बन तुमहिं पुकारा।
तब तुम रूप राम का धारा॥
भार उतार असुर दल मारा।
रावण आदिक को संहारा॥
आप वाराह रूप बनाया।
हिरण्याक्ष को मार गिराया॥
धर मत्स्य तन सिन्धु बनाया।
चौदह रतनन को निकलाया॥
अमिलख असुरन द्वन्द मचाया।
रूप मोहनी आप दिखाया॥
देवन को अमृत पान कराया।
असुरन को छवि से बहलाया॥
कूर्म रूप धर सिन्धु मझाया।
मन्द्राचल गिरि तुरत उठाया॥
शंकर का तुम फन्द छुड़ाया।
भस्मासुर को रूप दिखाया॥
वेदन को जब असुर डुबाया।
कर प्रबन्ध उन्हें ढुढवाया॥
मोहित बनकर खलहि नचाया।
उसही कर से भस्म कराया॥
असुर जलन्धर अति बलदाई।
शंकर से उन कीन्ह लड़ाई॥
हार पार शिव सकल बनाई।
कीन सती से छल खल जाई॥
सुमिरन कीन तुम्हें शिवरानी।
बतलाई सब विपत कहानी॥
तब तुम बने मुनीश्वर ज्ञानी।
वृन्दा की सब सुरति भुलानी॥
देखत तीन दनुज शैतानी।
वृन्दा आय तुम्हें लपटानी॥
हो स्पर्श धर्म क्षति मानी।
हना असुर उर शिव शैतानी॥
तुमने ध्रुव प्रहलाद उबारे।
हिरणाकुश आदिक खल मारे॥
गणिका और अजामिल तारे।
बहुत भक्त भव सिन्धु उतारे॥
हरहु सकल संताप हमारे।
कृपा करहु हरि सिरजन हारे॥
देखहुं मैं निज दरश तुम्हारे।
दीन बन्धु भक्तन हितकारे॥
चाहता आपका सेवक दर्शन।
करहु दया अपनी मधुसूदन॥
जानूं नहीं योग्य जब पूजन।
होय यज्ञ स्तुति अनुमोदन॥
शीलदया सन्तोष सुलक्षण।
विदित नहीं व्रतबोध विलक्षण॥
करहुं आपका किस विधि पूजन।
कुमति विलोक होत दुख भीषण॥
करहुं प्रणाम कौन विधिसुमिरण।
कौन भांति मैं करहु समर्पण॥
सुर मुनि करत सदा सेवकाई।
हर्षित रहत परम गति पाई॥
दीन दुखिन पर सदा सहाई।
निज जन जान लेव अपनाई॥
पाप दोष संताप नशाओ।
भव बन्धन से मुक्त कराओ॥
सुत सम्पति दे सुख उपजाओ।
निज चरनन का दास बनाओ॥
निगम सदा ये विनय सुनावै।
पढ़ै सुनै सो जन सुख पावै॥
॥ इति श्री विष्णु चालीसा ॥
भगवान बृहस्पति देव की आरती
जय वृहस्पति देवा, ऊँ जय वृहस्पति देवा ।
छिन छिन भोग लगाऊँ, कदली फल मेवा ॥
तुम पूरण परमात्मा, तुम अन्तर्यामी ।
जगतपिता जगदीश्वर, तुम सबके स्वामी ॥
चरणामृत निज निर्मल, सब पातक हर्ता ।
सकल मनोरथ दायक, कृपा करो भर्ता ॥
तन, मन, धन अर्पण कर, जो जन शरण पड़े ।
प्रभु प्रकट तब होकर, आकर द्घार खड़े ॥
दीनदयाल दयानिधि, भक्तन हितकारी ।
पाप दोष सब हर्ता, भव बंधन हारी ॥
सकल मनोरथ दायक, सब संशय हारो ।
विषय विकार मिटाओ, संतन सुखकारी ॥
जो कोई आरती तेरी, प्रेम सहित गावे ।
जेठानन्द आनन्दकर, सो निश्चय पावे ॥
सब बोलो विष्णु भगवान की जय ।
बोलो वृहस्पतिदेव भगवान की जय ॥
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